लाचुंग
में नदी के पुल को पार करके बायीं तरफ एक होटल में जाकर हमारी टैक्सी रुकती है। होटल का नाम हिडेन वैली है। पहले चाय के साथ स्वागत हुआ। फिर हमें एक ट्रिपल बेड रुम अलाट होता है। कमरा काफी
बड़ा है। अटैच टायलेट और गीजर लगा हुआ। पर यह क्या लाचुंग घाटी में बिजली गुल है।
पिछले कई दिनों से। ट्रांसफारमर जल चुका है। मरम्मत के लिए गंगटोक के पास सिंगटाम
गया है। पता नहीं कब तक आए। तो हम यहां लालटेन युग में हैं। थोडी देर में हमारे
होटल वाले वाले ने पोर्टेबल जेनसेट चलाया। इससे रोशनी सिर्फ रसोई घर और आंगन में
ही की जा सकी।
लाचुंग भारत के सिक्किम राज्य
में एक कस्बा है। यह तिब्बत से लगते उत्तरी सिक्किम जिले में स्थित है। लाचुंग 9600 फीट ( 2700 मीटर) की ऊंचाई पर लाचेन और लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित
है। ये दोनों ही नदियां ही आगे जाकर तीस्ता नदी में मिल जाती हैं। तो हम चलते चलते राजधानी गंगटोक से
काफी ऊंचाई पर आ चुके हैं। गंगटोक की ऊंचाई 5400 फीट (1650 मीटर) है। तो हम गंगटोक से दोगुनी ऊंचाई पर हैं। इसलिए यहां ठंड ज्यादा लग रही है।
लाचुंग मतलब छोटा रास्ता- लाचुंग का मतलब होता है छोटा रास्ता। तिब्बती भाषा में ला मतलब दर्रा (रास्ता) से है। साल 2005 के बाद लाचुंग घाटी में पर्यटन काफी बढा है। अब यहां 100 के आसपास होटल और होम स्टे बन चुके हैं। लाचुंग से एक तरफ भूटान की सीमा लगती है तो दूसरी तरफ चीन (तिब्बत) की। लाचुंग का वातावरण इतना मनोरम की कई सैलानी यहां आकर कुछ दिन गुजारना चाहते हैं।
लाचुंग मतलब छोटा रास्ता- लाचुंग का मतलब होता है छोटा रास्ता। तिब्बती भाषा में ला मतलब दर्रा (रास्ता) से है। साल 2005 के बाद लाचुंग घाटी में पर्यटन काफी बढा है। अब यहां 100 के आसपास होटल और होम स्टे बन चुके हैं। लाचुंग से एक तरफ भूटान की सीमा लगती है तो दूसरी तरफ चीन (तिब्बत) की। लाचुंग का वातावरण इतना मनोरम की कई सैलानी यहां आकर कुछ दिन गुजारना चाहते हैं।
लाचुंग को सिक्किम के सबसे
सुन्दर ग्राम के रूप में ख्याति प्राप्त है। इसे यह दर्जा ब्रिटिश घुमक्कड़ जोसेफ
डॉल्टन हुकर ने 1855 में प्रकाशित हुए द हिमालयन जर्नल में दिया था। ठंड तो यहां सालों भर पड़ती है। पर कभी भी बर्फबारी होने लगती है। हमारे
आने से एक दिन पहले भी लाचुंग में बर्फ गिरी है।
हमारे होटल के किचेन में अभी
खाना बनाने की तैयारी चल रही है। होटल स्टाफ बताते हैं कि खाना तैयार होने पर आपको
बुला लिया जाएगा। पर हमें उनकी तैयारी देखकर लगता है कि खाना तीन घंटे से पहले
नहीं मिलने वाला। हम सबने दोपहर 2 बजे लंच लिया था। सो सबको खूब भूख लगी है। पर
इंतजार के सिवा कोई चारा नहीं।
अंधेरे में मनोरंजन का कोई साधन भी नहीं। मैं थोड़ा पैदल चल अगले होटल में पहुंचा। वहां रोशनी ज्यादा है। होटल परिसर में एक दुकान है। वहां से जाकर कुछ बिस्कुट के पैकेट लिए। देखा दुकान के अंदर चिमनी चल रही है। उसके चारों तरफ बैठकर लोग आग ताप रहे हैं। मैं भी इस मंडली में शामिल हो गया। दुकानदार स्थानीय भूटिया जिग्मी हैं। ( मो. 8967234170) उनसे परिचय हुआ। हर साल वे बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, लुंबिनी जाते हैं। यह जानकर की मेरा घर बोधगया के पास है वे काफी खुश होते हैं। मैं बेटे अनादि को भी यहीं बुला लेता हूं। दूसरे सैलानियों संग चर्चा में वक्त कट जाता है।
रात के 9.30 बज चुके हैं। हमलोग वापस अपने होटल आते हैं। खाना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर कुछ लोग पहले से ही डायनिंग टेबल की कुर्सियों पर कब्जा जमा चुके हैं। अगली पांत में हमलोग संघर्ष करके जगह बना लेते हैं। खाने में चावल, दाल, पत्ता गोभी आलू की सब्जी, सलाद और चिकेन है। हमारी टीम के लोगों के एक टेबल जगह मिल गई। कैंडिल लाइट में वह एक यादगार डिनर बन गया। खाने के बाद हमलोग अपने कमरे में जाकर सो गए। बगल में बह रही नदी के जल के पत्थरों से टकराकर निकलते संगीत सुर लहरियां चांदनी रात को संगीतमय बना रही थीं। पर रात बढ़ने के साथ ठंड भी बढती जा रही है। - विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( ONE NIGHT IN LACHUNG VALLEY WITHOUT LIGHT )
अंधेरे में मनोरंजन का कोई साधन भी नहीं। मैं थोड़ा पैदल चल अगले होटल में पहुंचा। वहां रोशनी ज्यादा है। होटल परिसर में एक दुकान है। वहां से जाकर कुछ बिस्कुट के पैकेट लिए। देखा दुकान के अंदर चिमनी चल रही है। उसके चारों तरफ बैठकर लोग आग ताप रहे हैं। मैं भी इस मंडली में शामिल हो गया। दुकानदार स्थानीय भूटिया जिग्मी हैं। ( मो. 8967234170) उनसे परिचय हुआ। हर साल वे बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, लुंबिनी जाते हैं। यह जानकर की मेरा घर बोधगया के पास है वे काफी खुश होते हैं। मैं बेटे अनादि को भी यहीं बुला लेता हूं। दूसरे सैलानियों संग चर्चा में वक्त कट जाता है।
रात के 9.30 बज चुके हैं। हमलोग वापस अपने होटल आते हैं। खाना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर कुछ लोग पहले से ही डायनिंग टेबल की कुर्सियों पर कब्जा जमा चुके हैं। अगली पांत में हमलोग संघर्ष करके जगह बना लेते हैं। खाने में चावल, दाल, पत्ता गोभी आलू की सब्जी, सलाद और चिकेन है। हमारी टीम के लोगों के एक टेबल जगह मिल गई। कैंडिल लाइट में वह एक यादगार डिनर बन गया। खाने के बाद हमलोग अपने कमरे में जाकर सो गए। बगल में बह रही नदी के जल के पत्थरों से टकराकर निकलते संगीत सुर लहरियां चांदनी रात को संगीतमय बना रही थीं। पर रात बढ़ने के साथ ठंड भी बढती जा रही है। - विद्युत प्रकाश मौर्य - vidyutp@gmail.com
( ONE NIGHT IN LACHUNG VALLEY WITHOUT LIGHT )
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